Wednesday, August 11, 2010

बाल कविता मँहगाई

रात और दिन की अंतर दिखता, एक साल में भावों का। आम आदमी दुबला होता , जाए शहरों गाँवों का। दाल ओ चावल चखै अमीरी, दूध सभिन से सस्ता भा। मोट मेहरिया सूँघे सब्जी, दुबरन का बिल खस्ता भा। ऊँचे ऊँचे सपने देकर, गल्ला बीच सड़क सड़वाइन । नकली माल खिलाइन पहले, ओके बाद देत अजवाइन।बैंक सभी के देत है कर्जा, कर्जे मा घर मोटर पाइन। ओसे जब मँहगाई भड़की, कउनो रस्ता नहीँ सुझाइन। अब तो सबसे सस्ता फोनवा, लड़का लड़की चोँच लड़ाऐँ। शर्म हया की बातें छोड़ो, बिना ब्याह संग सोवैँ खाऐँ। भ्रष्टाचारी कलमाड़ी तो बहुत ही बड़ा खिलाड़ी बा। कामनवैल्थ कराइन को ऊ, देश के पैसा खाइल बा। एक तरफ गल्ला सड़ता है, कहीं भूख से होती मौत। एक तरफ सूखा पड़ता है, कहीं बाढ़ पर लूट खसोट। मँहगाई ने दामन चीरा, क्या कुछ अब बच पाएगा । राम चंद्र कह गए सिया से, कौआ मोती खाएगा।

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