इस ठंडी में क्या देखी है ?
तुमने प्यारी धूप और छाँव ॥
जिस सूरज से जलता था तन ,
गरमी में जलते थे पाँव ॥
जला अलाव तापते जन - जन ,
सुबह शाम हर गाँव - गाँव ॥
राम हमारे तुम्ही खेवइया ,
बीच भँवर है अपनी नाव ॥
छाँव कभी बारिश से चाहें ,
कभी चाहिए सूरज से ॥
छाँव माँ के आँचल की चाहें ,
छाँव प्रभु की कृपा से ॥
धूप और छाँव नहीं कुछ दूजे ,
सुख और दुख की कापी हैँ ॥
कभी धूप अच्छी लगती है ,
कभी निगोड़ी पापी है ॥
परिवर्तन ही जीवन है ,
इक रूप रहा न जाए अब ॥
धूप छाँव के इस बंधन से ,
प्रभु मुझको मुक्त करोगे कब ॥ - - -उदय भान कनपुरिया
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